हिसार ए अना – The siege of ego written by Elif Rose : Chapter 1

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the siege of ego

अना
यह एक लफ्ज़ अपने अंदर कितना मुनफीपन लिए हुए है न?
एक बार अपने पीछे किसी को लगा ले तो बस…… फिर इंसान कहीं का नहीं रहता।

वह भी कहीं की नहीं रहीं थीं। ज़िन्दगी के इतने साल इसके हिसार में गुज़ारने के बाद होश आया भी तो बहुत देर हो चुकी थी। अक्सर दिल में खयाल आता कि काश …… ए काश कि वह वक़्त का पहिया घुमा सकतीं तो कम से कम अपनी उन गलतियों को सुधार लेती, जिसकी ज़द में आकर उनके अज़ीज़ो की ज़िन्दगी में तूफान आया था। लेकिन वह क्या ही खूब लाइन है एक गाने की,
“सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया।”

Canada के एक पुर-आसाइश फ़्लैट की बालकनी में खड़ा असफन्द मीर बज़ाहिर तो बाहर सड़क पर फैले गाड़ियों के रश को देख रहा था, लेकिन ज़हन ओ दिल दूर कहीं बहुत दूर लगा हुए था। आंखों में आज भी एक चमक सी थी। शायद मोहब्बत में यही होता है। महबूब का खयाल ज़हन में आते ही आंखों में चमक आ जाती है और वजूद में सर्शारी सी दौड़ जाती है। अली अक्सर कहता,”मोहब्बत ने तुझे निकम्मा कर दिया है।” जिस पर वह हंस कर शरारत से कहता,” नहीं, मोहब्बत ने मुझे निखार दिया है।”

कॉफी खत्म हो गई थी। उसने कमरे में आ कर दरवाजा बंद किया और बिस्तर पर ढेर हो गया। साइड टेबल पर रखी किसी की फ्रेमशुदा तस्वीर उठायी थी, जिसके वहम ओ गुमान में भी ना होगा कि उसकी कोई तस्वीर उसके पास है। यह साइड पोज़ में ली हुई तस्वीर थी जो उसने चुपके से ली थी। लॉन में फूलों को पानी देते वह मासूमियत से मुस्कुरा रही थी। असफन्द मीर ने तस्वीर में मौजूद उसके चहरे पर हाथ फेरा। “मेरी ज़िन्दगी।”

The siege of ego by Elif Rose

यह एक खूबसूरत घर के लॉन में सुबह का मंज़र था। जहाँ दो नफ़ूस आमने सामने बैठे थे।
जिनमे से एक यूँ अकड़कर बैठा था जैसे अहसान कर रहा हो जबकि दूसरी ऐसे बैठी थी जैसे मौका मिलते ही यहाँ से भाग जाएगी।
वक्त भी क्या अजीब शय है, बहुत से काम मजबूरी में करवा देता है।

“पढ़ाई कैसी चल रही है?” वहाज हसन ने अपने सामने बैठी राहेमीन रिआज़ को देखते हुए पूछा।
काले कलर का अनारकली सूट पहने वह कुछ उदास थी।
“ठीक।” सर झुकाए गोद में रखे अपने हाथ की उंगली में पहनी अंगूठी को देखते वह बोली।
“ध्यान रहे, इस बार तुम्हारे नंबर कम नहीं आने चाहिए।”
“मैं कोशिश कर रही हूं।”
“कोशिश से क्या मतलब है? मुझे तुम्हारा रिकॉर्ड अच्छा चाहिए।” उसके लहज़े में धौंस था।
“जी।” ताबेदारी से जवाब दिया तो वह कुछ मुतमईन हुआ और अबकी बार बगौर उसे देखा।

गोरा रंग इन्तेहाई दिलकश नक़ूश और मुतास्सिर कुन सरापा।
काला दुपट्टा सर पर ओढ़े नज़रें झुकाए वह कितनी हसीन लग रही थी।
वहाज को अपने इंतेखाब पर फख्र हुआ।
ऐसी ही खूबसूरत लड़की चाहिए थी उसे अपनी हमसफ़र के रूप में।

“चलो अब कुछ अपनी बातें करते हैं।” वह मुस्कुराया।
राहेमीन ने सर उठा कर उसे देखा। “कैसी बातें?”
“भई हमारे फ्यूचर की और किसकी।”
” म… मुझे लगता है कि अम्मी आवाज़ दे रही हैं।” कहते साथ ही वह उठकर जाने लगी।

वहाज के माथे पर बल पड़े। अपनी बात को नज़रंदाज़ करना उसे एक आंख न भाया था।

“राहेमीन।” आवाज़ पर उसने मुड़कर वहाज को देखा। वह चुभती निगाहों से उसे ही देख रहा था।
“यह जो तुम हमारे रिश्ते की बात से बचती हो न…. बदलो अपना रवैया। मुझे दब्बू लड़कियां हरगिज़ नहीं पसंद।” कहकर वह गुस्से से वहां से चला गया।

राहेमीन तल्खी से मुस्कुराई। उसके गुरेज़ को वहाज शर्म समझ रहा था, इसी का ताना देकर गया था वह।
उसकी आंखों में न जाने क्यूं आंसू आ गए थे जिन्हें जल्दी से पोछते वह अंदर की तरफ बढ़ गई।
पीछे लॉन के मुख्तलिफ किस्म के पौधे जैसे उसे देख कर खुद भी उदास हो गए थे।

The siege of ego
The siege of ego by Elif Rose

“This is not fair Asfand Mir…. ऐसे खाली हाथ ही आ गए मेरे बर्थडे पर….कुछ तो लाते गिफ्ट के तौर पर।” महक ने मुस्कुराहट छुपाते कहा। रेड गाउन पहने बालों को जुड़े में कैद किये, वह काफी पुरकशिश लग रही थी।
असफन्द ने जवाबन अपने बगल में खड़े अली के हाथ से गिफ्ट ले कर उसे पकड़ाया।
“यह लो।”
“यह तो अली की तरफ से है।” उसने अहतिजाज किया।
“मेरी तरफ से ही समझो। अली ने मुझसे कुछ दिन पहले उधार लिया था ……. आज हिसाब बराबर हो गया।” दिल जला देने वाली मुस्कुराहट के साथ वह बोला। महक मुंह बना कर रह गई।
जबकि वह अली का बाजू पकड़ कर किनारे रखी टेबल की तरफ बढ़ गया।

“अच्छी बेइज्जती करवाई तुमने मेरी।” अली झल्लाया।
“और जो तुमने किया वो क्या था?”
“यार महक ने ही मुझे कहा था तुम्हें धोेके से यहां लाने को। अच्छा देखो घूरो मत यह देखो मैं हाथ जोड़ता हूं।” उसने ने बाकायदा हाथ जोड़ दिए।
“आइंदा।” उसने उंगली उठा कर उसे खबरदार किया। “आइंदा अगर तुमने इस तरह की हरकत दोबारा की तो समझ लेना मैं तुम्हारे साथ क्या करूंगा। अपनी इस दोस्त को अपने तक ही महदूद रखो तो बेहतर है।”
“OK-OK” अली ने सुलह के अंदाज़ में हाथ उठाये।

The siege of ego by Elif Rose

केक कट चुका था।अब वह और अली बैठे खाने से लुत्फ अंदोज़ हो रहे थे।
महक दोबारा उसके पास आयी थी लेकिन असफन्द ने उसे लिफ्ट ही नहीं दी।
“बड़े संगदिल हो तुम। ” मायूसी से कहते वह पलट गई।
अली ने गहरे नीले रंग के थ्री पीस सूट में मलबूस उस हैंडसम शख्स को घूरा।
“लड़की अच्छी है। क्या था जो उसका दिल रख लेते।”
“इंसान को वह काम कभी नहीं करना चाहिए जिसके लिए उसका दिल राज़ी न हो।”
“फिर भी हर्ज क्या है, कभी-कभी किसी का दिल रखने में।”
“तुम रख लिया करो न दिल।”
“वह तुम्हें पसंद करती है।” अली ने बावर कराया जिस पर उसने कंधे उचकाए। “So what?” और ग्लास उठा कर पानी पिया।
“वह खूबसूरत है यार।” अली एक बार फिर बोला।
असफन्द मीर ने इत्मिनान से ग्लास रख कर उसे देखा और बाएं हाथ की शहादत की उंगली अपने सीने पर रखी।

“जब इस दिल में कोई बस जाए ना… तो फिर दुनिया का कोई भी इंसान अपने महबूब से बढ़कर हसीन नहीं लगता। और फिर……” ज़रा आगे को हुआ।
“लैला ए आब-ओ-गुल तो हजारों हज़ार हैं,
मजनू है जिसकी रूह.. वो लैला ही और है।”
अली सर धुन के रहा गया। “बस यार मैंने तय कर लिया है, दुनिया में और कोई काम करूं या न करूं लेकिन मोहब्बत ज़रूर करूंगा।”
“अच्छा इरादा है।” उसने ताईदी की, अंदाज़ में शरारत थी।

The siege of ego by Elif Rose

अली से उसकी दोस्ती यहीं कनाडा में हुई, करीब दो साल पहले जब वह M. Arch करने यहां आया था।
पहले तो वह रेंट पर रहता था लेकिन उससे दोस्ती के बाद अली ही की ज़िद पर वह उसके साथ उसके फ़्लैट में रहता था।
असफन्द ने अपने इर्द गिर्द नज़र दौड़ाई। सब अपने आप में मगन थे,कोई डांस फ्लोर पर तो कोई कुर्सियों में बैठा खुश गप्पियो में मसरूफ।
‘वह’ यहां न होकर भी यहीं आस पास थी। उसने पुरसुकून अंदाज़ में कुर्सी की पुश्त से सर टिका कर आंखें मूंद लीं।
अली कह रहा था, “मैं हैरान हूं, तुम्हारी मोहब्बत किसी और से मंसूब है फिर भी तुम इतने पुरसुकून हो।” उसने आंखें नहीं खोली।

to be continued…………….

Assalam o Alaikum everyone…….’Hisaar e ana : the siege of ego’ is my first ever novel that I am posting
now it’s up to Allah, whether he make it success or not.
I just want from you guys that if you like this novel, please share it as much as you can.
Any type of feedback is welcoming except abusive words.

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