Hisar e Ana chapter 7 part 1:The Siege of Ego by Elif Rose

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Hisar e Ana chapter 7

Hisar e Ana chapter 7

महारत से सजे ड्राइंग रूम (बैठक) में लगे सोफों में से एक पर सबीहा और इलयास मीर तो दूसरे पर काली पैंट और सफ़ेद शर्ट पहने एक खूबसूरत नौजवान बैठा था।
मुनीबा और उनका बेटा अभी ही गए थे।
“तो आज मिस्टर शाहज़र हुसैन को फुर्सत मिल ही गई यहां आने की।” ड्राइंग रूम में दाख़िल होते असफन्द के तंज़ पर जहां शाहज़र ने खिसिया कर उसे देखा वहीं इलयास और सबीहा हंसते हुए खड़े हुए।
“तुम दोनों गिले शिकवे दूर करो, हम चलते हैं। और हां शाहज़र बेटा, डिनर हमारे साथ करके ही जाना।”
“नहीं अंकल, फिर कभी…..एक फंक्शन में भी जाना है मुझे, बस सोचा पहले यहां होता चलूं।”
“चलो ठीक है फिर आना किसी दिन।”
“जी।”

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वह दोनों चले गए तो शाहज़र ने उस सिरफिरे को घूरा जो अब सोफे पर बैठ रहा था।
“ऐसा धीठ दोस्त अल्लाह किसी को ना दें।…. तुम ही वजह हो मेरे ना आने की ।”
“मैंने क्या किया है?” उसने भौंवे उचकाई।
शाहज़र ने अफसोस सर हिलाया।
“कुछ नहीं हो सकता तुम्हारा। जानते हो कितनी शर्मिंदगी होती है मुझे यहां आने में?”
असफन्द सीधा हो कर बैठा।
“तुम्हें शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं है शाह….. तुमने तो….”
रफाकत बी को नाश्ता लाते देख वो चुप हुआ।

“यार यह जो कुछ देर पहले औरत आई थी यहां… उनसे कैसे ताल्लुकात बड़े तुम लोग के?” उनके जाने के बाद शाहज़र के अचानक सवाल पर असफन्द चौंका।
“मुनीबा आपा की बात कर रहे हो?…… एक्चुअली रफाकत चाची से पता चला था कि राहेमीन की कोई मदद की थी उन्होंने।” कोल्ड ड्रिंक का ग्लास उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए बताया।
“हमम।” ग्लास पकड़े शाहज़र कुछ सोच रहा था।
“क्यूं, क्या हुआ, जानते हो क्या उन्हें?”
“हां, दूर की रिश्तेदार हैं…. ध्यान रहे, अच्छी रेप्यूटेशन नहीं हैं इन लोग की बिरादरी में।” उसकी बात पर असफन्द के माथे पर फिक्र की लकीरें उभरी।
“ठीक है…. आगे से मैं खयाल रखूंगा इस बात का।”

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कुछ देर और बातें करने के बाद शाहज़र घड़ी देखते हुए उठा।
“यार, मैं चलता हूं अब, तुम्हें पढ़ाई भी करनी होगी।”
इससे पहले कि असफन्द उसे रोकता, शाहज़र का मोबाइल बजा था।
उसने कॉल रिसीव की लेकिन दूसरी तरफ़ की बात सुनते ही परेशान हुआ।
“व्हाट?…. किस हॉस्पिटल में?”
“क्या हुआ?” असफन्द भी खड़ा हुआ।
“पापा का एक्सिडेंट हो गया, मैं चलता हूं।” घबराहट से कहते हुए बाहर की तरफ़ बड़ा।
“रुको शाहज़र, मैं भी आ रहा हूं।” कहते हुए वह भी उसके साथ जाने के लिए निकला।

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बेडरूम में इसरा के दाएं-बाएं डेनिज़ और एलिज़ा और उनके सामने परेशान सी महक हाथ में मेडिसिन और पानी का ग्लास लेकर बैठी थी।
“Please take the medicine Anney,
you will get relief.”
“Hayır Sanem, अब और नहीं, मैं ठीक हूं अब।” उनके इनकार पर महक ने बेचारगी से पास ही सोफे पर बैठे सिकंदर को देखा जो टेक लगाए किसी गहरी सोच में गुम थे।
“पापा।”
आवाज़ पर चौंक कर उन्होंने महक को देखा।
“हां बेटा?”
“कहां गुम थे आप?….. देखिए अन्ने मेडिसिन नहीं ले रहीं।”
सिकंदर शाह ने बच्चों के घेराव में बैठी अपनी बीवी पर एक तकलीफ़देह नज़र डाली।
अभी कुछ देर पहले इसरा को एंग्जाइटी(anxiety) हो गई थी। उन्हें बग़ैर कुछ बोले रोता देख सब परेशान हो गए थे।
अब वह थोड़ा बेहतर हुई थीं।

सिकंदर ने एक गहरी सांस ली।
“आप लोग जा कर पढ़ाई करिए, मैं खिला दूंगा दवा।”
“नहीं, अभी मेरा मन नहीं लगेगा पढ़ाई में।” उसने मुंह बनाया।
“बुरी बात बेटा, पढ़ाई के मामले में कोई लापरवाही सही नहीं होती। मन लगा कर पढ़ो, मेहनत कभी बेकार नहीं जाती।” उनके समझाने पर वह बेड पर ग्लास और मेडिसिन रखती उठी। फिर डेनिज़ और एलिज़ा को देखा जो अभी भी अन्ने के कंधे से सर टिकाए बैठे थे।

“इनसे भी कहिए चलने को।”
“मेरी तैयारी पूरी है।” डेनिज़ का फड़कता हुआ जवाब आया। वह पढ़ाई में अच्छा था। अन्ने ने हल्का सा मुस्कुरा कर उसके सर पर हाथ फेरा।
जबकि सिकंदर ने घूरा। “तैयारी पूरी है तो जाओ एलिज़ा को मैथ पढ़ाओ।”
“पापा।” डेनिज़ और एलिज़ा एक साथ मिनमिनाए।
“No more excuses….. go.” लाचार उन्हें भी उठना ही पड़ा।
महक शरारत से उन्हें ज़ुबान चिढ़ा कर पहले ही वहां से भागी और कमरे में आकर हंसते हुए अंदर से दरवाज़ा लॉक कर लिया। वरना उन दोनों ने उसे नहीं छोड़ना था।

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उधर उन लोग के वहां से जाने पर सिकंदर सोफे से उठ कर बेड पर इसरा के सामने बैठे।
बच्चों के जाने के बाद वह फिर से रोने लगी थीं।
“इस तरह हिम्मत हार दोगी तो कैसे चलेगा?” सिकंदर ने हाथ बढ़ा कर उनके आंसू पोंछे।
फिर मेडिसिन उनके मुंह में डाल कर पानी का ग्लास लबों से लगाया।
पानी पीने के बाद इसरा ने नम आंखों से अपने शौहर को देखा जो अब ग्लास साइड टेबल पर रख रहे थे।
“हमारी खुशियों को किसकी नज़र लग गई सिकंदर?”
बहुत तकलीफ़ थी उनकी आवाज़ में।
सिकंदर उन्हें देख कर फीका सा मुस्कुराए।
“शायद… हमारी खुद की।”
वक़्त का कुछ पता नहीं होता। किस मोड़ पर कौन सी मुसीबत खड़ी इंतज़ार कर रही होती है, यह अगर पता भी चल जाए तो इंसान क्या कर सकता है?

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शाहज़र के पापा को गहरी चोट आई थी लेकिन अब वह ख़तरे से बाहर थे। असफन्द जब घर पहुंचा तो रात के ग्यारह बज रहे थे। इलयास मीर को मोबाइल पर अपने देर से आने की खबर वह पहले ही दे चुका था।
अब इरादा पढ़ाई करने का था।
इसलिए डायरेक्ट ऊपर चला आया।
लेकिन कमरे में आते ही ठिठक कर रुकना पड़ा।
सारा कमरा बिखरा हुआ था।
हैरत से सब देखते वह आगे बड़ा जब बेड और ज़मीन पर पड़े टुकड़ों ने उसकी तवज्जाह खींची।

असफन्द ने झुक कर उन टुकड़ों को उठा कर गौर से देखा। कुछ ही सेकंड लगे थे पहचानने में।
उसके पैरों तले जैसे किसी ने ज़मीन खींच ली।
गुंग सा वह अपने टिकट्स और पासपोर्ट के टुकड़ों को हाथ में रखे देख रहा था।
सोचने समझने की सलाहियत जैसे खत्म हो रही थी।
यह किसका काम हो सकता है?
शक एक ही तरफ जा रहा था।
और यही चीज़ उसे हैरत में मुब्तिला करने के लिए काफ़ी थी।
वह उन टुकड़ों को एक हाथ में लिए उठा था और तेज़ क़दम उठाता नीचे आया।

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अपने कमरे में राहेमीन सोने की तैयारी कर रही थी जब दरवाज़ा झटके से खुला।
दुपट्टा कंधों पर सही करते उसने सामने देखा जहां असफन्द आतिश-फशां बना खड़ा था।
राहेमीन के माथे पर सिलवट पड़ी।
“यह क्या तरीका है, किसी के कमरे में इस तरह आने का?”
“तरीक़ा?”

असफन्द ने उसके सामने आ कर तैश के आलम में बेड पर वह टुकड़े फेंके। “पहले बताओ यह सब क्या है?”
राहेमीन ने उन्हें देख कर नज़रें चुराई।
“पता नहीं आप क्या कह रहें हैं।” वह पलटने लगी थी कि असफन्द ने उसे बाज़ू से पकड़कर अपनी तरफ़ मोड़ा। इतनी अचानक कि अगर वह उसे ना पकड़ती तो गिर जाती।
सर उठा कर असफन्द को देखा जो सुलगती नज़रों से उसे देख रहा था। राहेमीन का दिल एक लम्हें को खौफ से कांपा।
“छ… छोड़िए मुझे। यह क्या …” असफन्द ने उंगली उठा कर उसे मज़ीद बोलने से रोका। दाएं हाथ से अभी भी उसका बाजू पकड़ा हुआ था।
“सिर्फ यह बताओ, क्यूं किया तुमने यह?” वह बमुश्किल ख़ुद को कंट्रोल किए हुए था। राहेमीन के इस क़दम ने उसे हिला कर रख दिया था।

“इसलिए कि दोबारा मुझे मंझधार में छोड़कर आप अपनी दुनिया मगन ना हो जाएं।” नागवारी से कहते उसने अपना बाज़ु छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन असफन्द की पकड़ मजबूत थी।
“अपनी दुनिया में मगन नहीं हुआ मैं, तुम आज हां कर दो, मैं आज के आज ही सारे मसले सुलझा दूं।”
राहेमीन के अंदर जैसे आग सी जली। “मैं क्यूं हां करूं, जब आप मुझे पसंद ही नहीं। और सच बताऊं, मुझे बहुत ख़ुशी हो रही आपको इस तरह लाचार देख कर।” उसके अल्फ़ाज़ की सख्ती पर असफन्द ने कर्ब से आंखें बंद कर के खोली।

“मैं जिस राहेमीन को जानता हूं, वह ऐसी तो नहीं थी। बहुत नर्म दिल था ना उसका? यह ज़हन….. यहां कभी किसी के बारे में बुरा खयाल नहीं आता था। फ़िर अब….. इतनी कैसे बदल गई तुम?” इस बार उसका लहज़ा हैरानी से ज़्यादा सदमा लिए हुए था।
“क्यूंकि मैं अब वह बेवकूफ़ राहेमीन रही ही नहीं। आज की हकीकत यह है कि मुझे आपसे, आपके नाम से और यहां तक कि आपके ज़िक्र से भी नफ़रत है। इसलिए बेहतर यही है कि मुझसे किसी चीज़ की उम्मीद मत रखें।” मजबूती से कहती वह चौंकी। असफन्द ने उसका हाथ छोड़ दिया था। और अब दोनों हाथ सीने में बांधे अजीब तास्सुर से उसे देख रहा था।
राहेमीन पहले तो कन्फ्यूज़ हुई लेकिन उसके हुनूज़ उसी तरह खड़े रहने पर तप कर जाने लगी।

“तो तुम्हें मुझसे नफ़रत है?” आवाज़ पर रुकी, इतने में वह फिर उसके सामने आ खड़ा हुआ। “मेरे नाम और ज़िक्र से भी नफ़रत है, राइट??” राहेमीन ने सुलगती नज़रों से उसे देखा।
“सामने से हटिए।”
“राहेमीन बीबी, आप आज भी बहुत नादान सी हैं…. दूसरों की तो क्या…. ख़ुद अपनी भी पहचान नहीं आपको। कभी फुर्सत मिले तो दुनिया भर के झमेलों को किनारे कर के एक बार अपने आप से, अपने दिल से बातें ज़रूर करिएगा। शायद तब दिमाग़ की गिरहें कुछ खुल जाएं।” अपनी ज़ब्त से सुर्ख होती आंखें उस पर टिकाए वह राहेमीन को जैसे आग लगा गया।

ग़म-ओ-गुस्से में उसका हाथ उठा था लेकिन इससे पहले कि असफन्द के गाल पर पड़ता, उसने राहेमीन का हाथ पकड़ लिया था।
“तुम्हारी हज़ार मार मैं सहने के लिए तैयार हूं, लेकिन तब जब मुझे वाक़ई लगेगा कि इसका मुस्तहक हूं मैं।” हाथ छोड़ते हुए बोला।
राहेमीन का दिल चाहा सामने खड़े शख़्स का मुंह नोच ले।आंखों से आंसू निकल कर रुखसार पर बहे।
“अपनी खुशफहमी की जन्नत से बाहर निकलिए असफन्द मीर। मेरे दिल में मर कर भी आपके लिए कोई नर्म गोशा नहीं हो सकता।”
लेकिन असफन्द ने तो जैसे सुना ही नहीं। वह उन आंसुओं से ही बेबस हो गया था। उन्हें पोछने के लिए हाथ बढ़ाया था कि आवाज़ पर चौंक कर पीछे मुड़ा।
इलयास मीर दरवाज़े के पास खड़े हैरत से उन दोनों को देख रहे थे।
to be continued…

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Hisar e Ana chapter 3

and Hisar e Ana chapter 4

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