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वहाज के चहरे पर एक रंग आ कर गुज़रा था।
“तुमने वहाज हसन से जंग का आगाज़ किया है। मत भूलो तुमसे निकाह से पहले वह मंगेतर थी मेरी।”
“उससे भी पहले वह मेरी मोहब्बत थी और यह तुम्हारे इल्म में था। भूल गए या याद दिलाऊं?”
उसकी आंखों में देखते एक एक लफ्ज़ पर ज़ोर देते असफन्द बोला।
वहाज एक पल को चुप हुआ।
कुछ याद आया था।
“तो तुमने बदला लिया है मुझसे?”
“नहीं।” असफन्द ने नहीं में सर हिलाया।
“जो मेरा था, सिर्फ उसे वापस लिया है।” अंदाज़ में इस्तेहकाक था।
वहाज अंदर तक सुलगा।
“तो तुम भी सुन लो। मैं उसे तुमसे छीन कर रहूंगा।”
चैलेंजिंग अंदाज़ कहते वह वहां से पलट कर अंदर की तरफ बढ़ गया।
असफन्द चंद लम्हें खड़ा उसे जाता देखता रहा।
एक लम्हें को आंखों में कर्ब उभरा था।
सिर्फ एक लम्हें को।
फिर वह सर झटकता अपनी कार की जानिब बढ़ गया लेकिन कार का दरवाज़ा खोलते हुए वह ठिठक कर रुका। किसी एहसास के तहत सर उठा कर ऊपर देखा तो नज़रें वहां खिड़की पर जम सी गईं।
धड़कनों की रफ़्तार कुछ बढ़ी थी।
अंधेरे में कोई था जो असफन्द के उस तरफ मुतवज्जाह होने पर पीछे हट गया था।
वह आंखों में ढेरों अनकहे जज़्बात लिए उस खाली हुई खिड़की के पर्दे को देखे गया।
कभी देखा है?
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उस शख़्स को?
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जो इन मौसमों की तरह हो।
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जो रंग बदलते हैं
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कभी सर्द
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कभी गर्म
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कभी नर्म
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कभी सख्त
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और कभी
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उस मुसाफिर को
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जिसकी ज़ात
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गुज़रती है
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इन पल पल बदलते
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रंगों से।
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खिड़की पर से नज़रें हटा कर वह कार में बैठा।
तेज़ ड्राइविंग कर वहां से चला गया।
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वहाज अंदर आया तो सबीहा मीर मोबाइल कान से लगाए खड़ी थीं।
“उससे कह दीजिएगा दोबारा यहां का रुख़ ना करे, वरना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।”
दूसरी तरफ़ इलयास मीर ने परेशानी से अपना माथा मसला।
वह लॉन में ही असफन्द के इंतज़ार में बैठे थे।
“सबीहा, इतनी सख़्त मत बनो। कुछ तो गुंजाइश निकालो।” उन्होंने इल्तिज़ा की। बुरी तरह फंसे थे वह बेटे और बीवी के बीच में।
“प्लीज़ इलयास, मैं बार-बार इस मसले पर बहस नहीं करना चाहती। मुझे किसी चीज़ के लिए मजबूर मत करिए।”
सख़्ती से कहते हुए उनकी नज़र वहाज पर पड़ी।
“चलिए फिर बाद में बात करूंगी। अपना खयाल रखियेगा, अल्लाह हाफ़िज़!”
कॉल काट कर वह वहाज की तरफ़ मुतवज्जाह हुईं।
“चला गया वह?”
“जी।” वहाज ने हां में सर हिलाया।
“फुफ्फो, मुझे नहीं लगता असफन्द इतनी आसानी से राहेमीन को आज़ाद करेगा। हमें उस पर जबरन शादी का केस करना चाहिए।”
“नहीं बेटा। इस तरह मेरी राहेमीन पर आंच सकती है। हमारा एक नाम है सोसायटी में, सब मिट्टी में मिल सकता है। मैं यह मामला खामोशी से ही सॉल्व करना चाहती हूं।”
वह नहीं में सर हिलाते हुए जा कर सोफे पर बैठ गईं।
हसन साहब कब से वहीं खड़े थे, उन्होंने एक नज़र बेटे के चहरे पर फैली बेज़ारी को देखा फिर बहन(सबीहा) को।
फिर खंखारते हुए उनके साथ ही सोफे पर बैठे।
“सबीहा, मैं हर फ़ैसले में तुम्हारे साथ हूं। लेकिन एक बार फिर अच्छे से सोच लो। वह लड़का असफन्द, मेरे खयाल में वह हमारी राहेमीन के लिए सीरियस है।” उन्होंने आज जो महसूस किया साफ बोल दिया।
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सबीहा मीर ने तड़प कर उन्हें देखा।
“आप उसे नहीं जानते भाई। मेरे सामने बड़ा हुआ है वह। ज़मीन आसमान का सा फर्क है उसके और राहेमीन के मिजाज़ में। कभी ख़ुश नहीं रह पाएगी मेरी बेटी उसके साथ।”
उनके लहज़े में यकीन था।
वहाज के चहरे पर इतमीनान आया जबकि उसकी मां ने सर झटका।
दोनों बहने हिबा और हिना मुंह बनाते हुए अपने कमरे की तरफ चल दी।
“चलो जैसा तुम्हें ठीक लगे सबीहा। बस मुझे डर है इससे तुम्हारे और इलयास के रिश्ते पर कोई फ़र्क ना पड़े।”
हसन साहब ने खदशा ज़ाहिर किया।
“इस वक़्त मैं यह नहीं सोचना चाहती भाई। राहेमीन से बढ़कर मुझे कोई नहीं।” वह पुरअज़म थीं।
हसन साहब ने फिर बहन को मज़ीद समझाने का इरादा कैंसिल कर दिया और दूसरी बातें करने लगे।
वहाज उन दोनों को सोचती हुई नज़रों से देखते अपने बेडरूम में चला गया।
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Hisar e ana chapter 22 part 2
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