Hisar e Ana chapter 14 part 1: The Siege of Ego by Elif Rose

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Hisar e Ana chapter 14

Hisar e Ana chapter 14

मैं तैयार हूं निकाह के लिए।” यह अल्फ़ाज़ राहेमीन ने किस तकलीफ से अदा किए थे यह वह ही जानती थी।
यहां से निकलने का और कोई रास्ता उसे नज़र नहीं आ रहा था।
असफन्द के साथ यहां अकेले रहते भी उसे डर लग रहा था।
उसके खयाल में जो शख़्स उसे धोके से यहां ला सकता था, वह और कुछ भी कर सकता था।
हां, वह उसका भरोसा खो चुका था। इसलिए फ़िलहाल उसे असफन्द की बात मानना ही सही लगा।

फिर सब कुछ बहुत जल्दी हुआ था।
असफन्द ने बग़ैर कुछ बोले अपने दोस्त शाहज़र को कॉल की।(जिसकी कॉल पहले भी आई थी।)
सारी तैयारी पहले से ही थी।
कुछ ही देर में असफन्द के कुछ दोस्त काज़ी के साथ यहां मौजूद थे।
उनमें से शाहज़र को देख राहेमीन चौंकी थी। फिर तल्खी से हंसी।
यह सब असफन्द के ही ख़ैर ख्वाह थे। उसके ही मुखलिस थे।
वह जो एक ज़रा सी उम्मीद थी कि आने वाले लोगों से मदद मांगेगी, वह भी दम तोड़ गई।
वह मशीनी अंदाज़ में जा कर सोफे पर बैठ गई थी।

काज़ी ने निकाह पढ़वाना शुरू किया और फिर उनके पूछने पर उसने असफन्द मीर को अपना शौहर क़ुबूल कर लिया। निकाह के पेपर्स पर साइन करते वक़्त राहेमीन के हाथ कांपे थे। यह ज़िन्दगी के किस मोड़ पर आ खड़ी हुई थी वह। अज़ीयत के एहसास से दोचार हो कर उसने अपनी उंगली में चमकती डायमंड रिंग को देखा था। न चाहते हुए भी वह अपनी जान छिड़कने वाली मां का मान तोड़ चुकी थी। आंसू टूट कर पलकों से गिरे थे। शाहज़र ने आगे बढ़कर ढारस के अंदाज़ में उसके सर पर हाथ रखा। वह हमेशा से असफन्द का राज़दार रहा था और उसके हवाले से राहेमीन उसे अज़ीज़ थी। अपने जान से प्यारे दोस्त की मोहब्बत में वह उसका साथ देने पर मजबूर हो गया था लेकिन राहेमीन से बेहद शर्मिंदा था।

सामने वाले सोफे पर असफन्द ख़्वाब की सी कैफियत में बैठा था। वह उसे क़ुबूल कर चुकी थी। अब उसकी बारी थी अपनी मोहब्बत को एक जायज़ नाम देने की, एक मजबूत रिश्ते में बंधने की। मसर्रत के एहसास में घिर कर उसने भी उसे क़ुबूल कर लिया। पेपर पर साइन करते वक़्त इतने दिन से जलते सुलगते उसके बेचैन दिल को एक बारगी करार आया था। आखिरकार वह दोनों निकाह के पाक बंधन में बंध गए थे।

ख़ुशी की इंतेहा क्या होती है, कोई असफन्द मीर से पूछता।
तकलीफ़ की इंतेहा क्या होती है, कोई राहेमीन रियाज़ से पूछता।

Hisar e Ana chapter 14

काज़ी और बाक़ी लोगों के जाने के बाद वह मज़बूत क़दम बढ़ाता उसके पास आया था जो सर झुकाए, पत्थर बनी अपने हाथों की लकीरों में न जाने क्या तलाश कर रही थी।

निकाह,
एक ख़ूबसूरत रिश्ता,
वह सर्शार था उसे अपना बना कर।

पूरे हक़ से असफन्द ने अपनी मज़बूत हथेली उसकी तरफ बढ़ाई थी।
पूरे हक़ से राहेमीन ने उसके बढ़े हाथ को नज़रअंदाज़ किया था।

एक गहरी सांस लेकर उसने अपने बढ़े हाथ को जेब में डाला और एक नज़र उसे देख दरवाज़े की तरफ पलटा।
“चलो।”

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Hisar e Ana chapter 1

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