Hisar e Ana chapter 13 part 4: The Siege of Ego by Elif Rose

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Hisar e Ana chapter 13 part 4

Hisar e Ana chapter 13 part 4

“आप……” वह पीछे मुढ़ी। “मज़ाक कर रहे हैं न आप?” कपकपाती आवाज़ में कुछ आस से बोली।
“बताइए न असफन्द….. यह सब कुछ जो….जो आपने कहा वह सब झ……. झूठ है न?…..मज़ाक कर रहे हैं न आप?” रुहांसे लहज़े में बोलती, पीच रंग के कपड़े में मलबूस सर पर दुपट्टा ओढ़े घबराई हुई वह असफन्द मीर को तकलीफ़ से दोचार कर रही थी लेकिन वह इस वक़्त कमज़ोर नहीं पड़ना चाहता था इसलिए अपना लहज़ा सपाट रखा।

“हमारे बीच मज़ाक का रिश्ता कभी रहा ही नहीं, अब जो कह रहा हूं उसे ध्यान से सुनो……. आज तुम यहां से वापस घर तब ही जा सकोगी जब मुझसे निकाह करोगी वर्ना नहीं…….अब फैसला तुम्हारा है, जितनी देर करोगी उतना ही तुम्हारा नुकसान होगा। एक बात तो तय है………जब तक निकाह नहीं तब तक वापसी नहीं।”

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“आप ज़बरदस्ती नहीं कर सकते हैं।” वह चीखी थी। “मैं आपसे हरगिज़ भी निकाह नहीं करूंगी, सुना आपने?… न आज न ही कभी।” जवाबन असफन्द ने बस ख़ामोशी से दीवार पर लगी घड़ी की तरफ इशारा किया था जहां दिन के साढ़े तीन बज रहे थे।
वह रोज़ कॉलेज से दो बजे तक घर पहुंच जाया करती थी और आज तो डेढ़ घंटे की देरी अभी से हो चुकी थी।

“आप ऐसा कैसे कर सकते हैं?” वह अब बाकायदा रोने लगी। “प्लीज़ मुझे जाने दीजिए, मैं घर न पहुंची तो पता नहीं क्या होगा। प्लीज़ लॉक खोलिए मैं….”

“देर तुम कर रही हो राहेमीन, वर्ना जैसे ही निकाह हुआ मैं तुम्हें घर छोड़ दूंगा।” वह कह कर वापस जा कर सोफे पर बैठ गया जबकि राहेमीन ज़मीन पर बैठ कर घुटनों में सर दिए रोने लगी।
असफन्द पर भरोसा करके यहां आना उसे अपनी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी गलती लग रही थी।
मोबाइल उसका बैग में था और बैग बाहर कार में।
इस कमरे में कोई खिड़की भी उसे नज़र नहीं आ रही थी सिवाए रोशनदान के।

Hisar e Ana chapter 13 part 4

वक़्त गुज़रता जा रहा था।
असफन्द अब मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था।
चार कब के बज चुके थे।
“आपको निकाह करना था तो घर में अम्मी और अंकल(इलयास मीर) से बात करते। मुझे इस तरह ब्लैकमेल करना कहां की इंसानियत है?” असफन्द के मोबाइल डिस्कनेक्ट करते ही वह बोली थी।
“मुझे लगा था कि आप सुधर चुके हैं, लेकिन ग़लत थी मैं। आप आज भी वही खुदगर्ज़ इंसान हैं जो सिर्फ अपने बारे में सोचता है। दूसरों की ख्वाहिशें और तकलीफें आपकी नज़र में कोई अहमियत नहीं रखती। हमेशा से खार रही है आपको मुझसे। तस्कीन मिलती है मुझे तकलीफ़ देकर। इस कदर नफ़रत करते हैं मुझसे कि….”

“नफ़रत कैसे कर सकता हूं मैं तुमसे?” वह बेचैन हो कर उसके सामने ही घुटनों के बल बैठा। “तुम तो…… मोहब्बत हो मेरी।….. हां…..मैं असफन्द मीर, तुमसे बेपनाह मोहब्बत करता हूं। यह मोहब्बत इतनी शदीद है कि तुम्हारे बिना ज़िन्दगी का तसव्वुर ही मुझे ठीक से सांस नहीं लेने देता।” वह पहली बार साफ लफ्ज़ों में उससे अपनी मोहब्बत का इज़हार कर रहा था जो अभी भी घुटनों में सर दिए बैठी थी।
“फिर मैं कैसे तुम्हें किसी और होता देख सकता हूं? मैंने तो हमेशा तुम्हारे ख्वाब बुने, तुम्हें ही चाहा। अगर मुझे ज़रा भी उम्मीद होती या वक़्त होता कि आगे जा कर मैं तुम्हें अपनी ज़िन्दगी में शामिल कर सकता हूं तो….इस तरह ना करता। प्लीज़ राहेमीन…….प्लीज़ मान जाओ।” बहुत आस से उसके झुके सर को देखा था जो सिसकी ले रही थी।

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वह कुछ देर उसके जवाब का मुंतजिर रहा फिर उठकर कद्रे इज़्तेराब से कमरे में इधर उधर टहलने लगा।
साढ़े चार बजने वाले थे।
उसे हर हाल में छः बजे से पहले राहेमीन को घर पहुंचाना था क्यूंकि जिस तकरीब (function) में बहाने से उसने इलयास और सबीहा को भेजा था, वह छः बजे तक ख़त्म होती और यह बात राहेमीन को नहीं पता थी।
वह यकीनन यह समझ रही थी कि उसके लेट होने पर घर पर सब परेशान हो रहे होंगे।
वह वाकई असफन्द को नहीं समझती थी।
नहीं जानती थी कि असफन्द को उसकी इज़्ज़त ख़ुद बहुत अज़ीज़ थी।
वह उसे रुसवा करने का तो कभी सोच भी नहीं सकता था।

यह तो प्लान था एक।
एक सिनैरिओ….
जिससे ना चाहते हुए भी वह राहेमीन को डरा कर उसे अपने नाम करना चाहता था।
हां, वह ख़ुदगर्ज़ हो रहा था इस मामले में लेकिन इतना भी नहीं कि उसकी…. अपनी मोहब्बत की रुसवाई का सोचे।

यह तो पहले से तय कर रखा था उसने कि छः बजे से पहले वह राहेमीन को घर छोड़ देगा। चाहे वह कामयाब हो या ना हो। चाहे उसके बाद कुछ भी हो। वह मर कर भी राहेमीन को रुसवा करने का सबब नहीं बन सकता था।
यह बहुत बड़ा रिस्क लिया था उसने…या यह कहना ज़्यादा सही होगा कि गोया जुआं खेला था। राहेमीन को जितना वह जानता था, वह एक कम हिम्मत और एक डरपोक लड़की थी। इस बात को मद्देनजर रख कर यह प्लान बनाया था उसने। उसे लगा था कि वह वक़्त रहते ही मान जाएगी।
मगर इतनी देर हो गई थी।
वह डर रही थी।
हिम्मत हार रही थी।
लेकिन अभी तक उससे निकाह के लिए मान नहीं रही थी।

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असफन्द ने रुक कर घड़ी पर नज़र दौड़ाई। पांच बजने वाले थे। वह थक कर सोफे पर बैठ गया और एक हाथ से अपना माथा मसलने लगा।
अगर वह अब भी नहीं मानी तो?
उफ़!
वह नहीं खोना चाहता था उसे।
कल रात Canada के लिए उसकी फ्लाइट थी।
फिर वह कैसे अपने लिए स्टैंड ले पाएगा?
उसका मोबाइल फिर बज रहा था। वह बग़ैर तवज्जाह दिए ऐसे ही बैठा रहा।
उधर राहेमीन अब भी रोते हुए कभी घड़ी को देखती, कभी दरवाज़ा ढकेलते हुए हैंडल घुमाती तो कभी ऐसे ही सर घुटनों में दे देती। असफन्द को तो वह देखना भी गवारा नहीं कर रही थी।

और फिर पांच बजकर दस मिनट पर जब असफन्द उम्मीद का दामन छोड़ने ही वाला था तब ही राहेमीन रियाज़ ने उसे ज़िन्दगी की नई नवेद सुनाई।
“मैं तैयार हूं निकाह के लिए।”

to be continued………..

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Hisar e Ana chapter 1

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