Hisar e Ana chapter 13 part 2: The Siege of Ego by Elif Rose

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Hisar e Ana chapter 13 part 2

Hisar e Ana chapter 13 part 2

दिन यूं ही गुज़रते जा रहे थे।
रात के इस पहर अपने कमरे में बेड पर बैठा असफन्द सपाट नज़रों से अपने सामने पड़े पासपोर्ट और दूसरे डॉक्युमेंट्स को देख रहा था।
4 दिन बाद की उसकी फ्लाइट थी।
क्या वह जा सकेगा?
इस तरह सब छोड़ कर?
वहां चले जाने पर मामला और हाथ से निकल गया तो?
शाहज़र का मशवरा था कि वह यह मामला किस्मत पर छोड़ दे लेकिन उसके लिए यह करना हरगिज़ भी आसान नहीं था?

इन गुज़रे कुछ दिनों में वह रोज़ डैड को कन्वेंस करने की कोशिश करता रहा था।
वह चाहता था कि बात बड़ों के बीच सुलझे। लेकिन डैड उसकी सुन ही नहीं रहे थे।
सबीहा आंटी से बात करने की सोचता तो आजकल उनके चहरे पर छाई एक अलग तरह की खुशी उसे किसी भी तरह का रिस्क लेने से रोक देती थी।

बची वह दुश्मन ए जां, तो उस से भी बात करना फ़िज़ूल था। हाई क्लास से ताल्लुक रखने के बावजूद वह पूरी ममाज़ गर्ल थी।
उसने थक कर बेड की बैक से सर टिका कर बालों में हाथ फेरा।
एक बात तो तय थी, बग़ैर यह मामला हल किए उसे यहां से नहीं जाना था।
हालात कितने भी बुरे हों, उसे हार नहीं माननी थी।
यह रात भी पिछले कुछ दिनों की तरह यूं ही जागते सुलगते हुए गुज़री।

सुबह बिना नाश्ता किए वह लॉन में लगी चेयर पर बैठा खुद से ही बैर बांधे बैठा था।
इलयास साहब ने उसे बुलवाया भी था लेकिन वह नहीं गया।
अपने महबूब को रात दिन किसी गैर के हवाले से देखना भी अज़ाब लगने लगा था।
लम्हें सरकते गए और वह बिना किसी की परवाह किए वहीं बैठा रहा यहां तक कि दोपहर की कड़ी धूप भी उसे टस से मस नहीं कर सकी।

इलयास साहब बग़ैर उससे कुछ कहे ऑफिस चले गए। उसका ख़ामोश एहतिजाज वह समझ रहे थे लेकिन इस मामले में वह कमज़ोर नहीं पड़ना चाहते थे। उनका खयाल था कि Canada जाने पर उसके सर पर चढ़ा इश्क़ का भूत उतर जाएगा। हां, उन्हें यह बस एक वक्ती जज़बा ही लग रहा था जो धीरे धीरे ख़त्म हो जाएगा। उसके इस एहतिजाजी रवैये पर सबीहा और राहेमीन के अंदर उठते सवालों पर उन्होंने बहुत महारत से कोई बहाना बनाया था।

Hisar e Ana chapter 13 part 2

जानी पहचानी आहट पर असफन्द ने कब से बंद की हुई अपनी दुखती आंखें खोलीं और दाएं तरफ़ गर्दन मोढ़ कर देखा।
राहेमीन उससे बेपरवाह मुख्तलिफ क़िस्म के फूलों की क्यारी के पास झुक कर कुछ ढूंढ रही थी।
वह कितनी ही देर उसे देखे गया।
दिल में फिर एक दर्द जागा था।
क्या उसके जज्बे इतने बेमोल थे कि उस जान से अज़ीज़ हस्ती को खबर हुए बग़ैर ही रुल जाते?

वह उठकर उसके पास आया।
“क्या ढूंढ रही हो?”
राहेमीन ने चौंक कर सर उठाया।
फिर झिझक कर अपनी नज़रें झुका ली।
“वह… मेरी रिंग नहीं मिल रही है। हर जगह ढूंढ लिया, पता नहीं कहां चली गई।” नाज़ुक उंगलियां चटकाते हुए अपनी परेशानी ज़ाहिर करती अनजाने में वह असफन्द को फिर शोलो कि नज़र कर गई थी।
तो क्या इस तपती धूप में वह उस ना पसंदीदा चीज़ को ढूंढ रही थी जिसकी वजह से इतने दिनों से उसकी नींदें उड़ी हुई थी।
उसने ज़ब्त से मुट्ठियां भींच ली जबकि राहेमीन दोबारा रिंग(अंगूठी) ढूंढने लगी थी।
वह होठ भींचे वहीं खड़ा उसे देखता रहा।

कुछ देर की अनथक मेहनत के बाद गुलाब के पौधे के पास अंगूठी मिल गई थी।
राहेमीन ने बेइख़्तियार उसे क्यारी से उठाया।
असफन्द का दिल चाहा उसके ख़ूबसूरत हाथ से रिंग लेकर दूर कहीं ऐसी जगह फेंक दे जहां कोई भी उसे ढूंढ न पाए।
इस सोच पर वह अमल भी कर देता मगर राहेमीन की आवाज़ ने उसे रोक दिया।

“शुक्र है अल्लाह का, मिल गई। वरना मैं तो डर गई थी कि अम्मी को क्या कहूंगी।”
वह चौंका था और निगाह का रुख अंगूठी से हटा कर उसके चहरे की तरफ किया था।
सी ग्रीन दुपट्टे के हाले में दमकते उसके मासूम चहरे पर अब सुकून नज़र आ रहा था।
धूप की तपिश से आई पसीने की बूंदों को माथे पर से पोंछते हुए वह सिर्फ अपनी मां की नाराज़गी से बच जाने पर ख़ुश लग रही थी।
इस अंगूठी से कोई जज़्बाती वाबस्तगी ढूंढने से भी नज़र नहीं आई।

असफन्द को लगा इस कड़कती धूप में अचानक उसे बहार की झलक दिखी है।
उसके तने आसेब ढीले पड़े थे।
ज़हन में एकबार्गी कोई सिरा हाथ लगा था।
उसने दोबारा सुलगती नज़रों से उस रिंग को देखा फिर पुर असरारियत से मुस्कुराया।
“इन्हें क्या हुआ?” उसके अजीब अंदाज़ पर राहेमीन ज़ेर ए लब बड़बड़ाई थी फिर उसे सोच में डूबे देख कंधे उचका कर वहां से चली गई लेकिन असफन्द काफी देर तक वहीं, उसी पोज़ीशन में खड़ा रहा था।

उस रात उसने अपने डैड को आख़री बार कन्वेंस करने की कोशिश की थी और हर बार की तरह इस बार भी नतीजा वही था।
वह उसकी मोहब्बत को क्रश से बढ़ कर और कुछ समझने को तैयार ही नहीं थे।
अगर जो उसकी जुनूनी मोहब्बत को समझ लेते तो शायद इस तरह इस मामले से लाताल्लुक ना होते और वह ना होने देते जो आगे हुआ।

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