Hisar e Ana chapter 12 part 1: The Siege of Ego by Elif Rose

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Hisar e Ana chapter 12

Hisar e Ana chapter 12

कितनी ही देर वह ख़ामोशी से उसे देखता रहा था।
फिर क़दम बढ़ा कर चलता हुआ मेज़ के पास आया और उस पर रखे जग से ग्लास में पानी निकाला फिर सरापा अज़ीयत बनी राहेमीन के सामने आ कर ग्लास सामने किया।

“पानी पी लो, फिर बात करते हैं।” इस तवज्जाह पर राहेमीन का दिमाग घूमा था।
गुस्से से उसके हाथ से ग्लास लिया और जा कर मेज़ पर पटखने के से अंदाज़ में रख कर पलटी।

“यह केयरिंग बनने का नाटक मत करिए मेरे सामने।” उसके तास्सुरात सख़्त थे।
“क्या मैं आपके दोगले पन को नहीं जानती? दिली ख़ुशी मिलती है आपको मुझे अज़ीयत में देख कर। यह सब…. जो कुछ भी मेरे साथ हो रहा है, इसकी वजह आप ही तो हैं। मुझे बीच मंझधार पर लाने वाले आप हैं। मेरी खुशियां मिट्टी में मिलाने वाले, मेरी हर तकलीफ़, हर आँसू की वजह सिर्फ़ और सिर्फ़ आप हैं।” दाएं हाथ की उंगली उठाए हद-दर्जा बदगुमान थी वह।

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असफन्द ज़ख्मी सा मुस्कुराया। “गलतफहमी है तुम्हारी।” कहते हुए दोबारा उसके सामने आ कर खड़ा हुआ। “मैंने तो तुम्हारी मुस्कुराहट की वजह बनना चाहा है। इन आंखों में…..” उसकी आंखों में झांका।
“इन आंखों में अपनी मोहब्बत के दीप जलाने चाहे हैं। नए ख़्वाब बुनने चाहे हैं।” वह एक जज़्ब से बोल रहा था, आंखों में बेचैनी हिलकोरे ले रही थी।
“और तुम?…. तुम्हें लगता है कि मैं….. मैं असफन्द मीर.. तुम्हें रुलाना चाहता है, तुम्हें तकलीफ देना चाहता है?” दोनों हाथ उसके कंधों पर रखे।
“कभी असफन्द से पूछो तो सही….. कि तुम्हारे इन आंसुओं से उसके दिल पर जो आरियां चलती हैं, उनकी तकलीफ़ कितनी शदीद है?
उससे पूछो कि यह दो साल तुमसे दूर रह कर उसने कितनी अज़ीयत सही है?
तुम्हारी बेरूख़ी पर वह कितना तड़पता है?” उसकी आवाज़ तेज़ हो रही थी।

राहेमीन ने उसका हाथ झटकना चाहा लेकिन उसकी गिरफ्त में नर्मी के बावजूद सख़्ती थी।
“मैं असफन्द मीर, जो दुआ के लिए जब हाथ उठाता है तो उसे तुम्हारे सिवा और कुछ मांगने की फुरसत ही नहीं मिलती। तुम्हारी एक मुस्कुराहट के लिए वह तरसता है और तुम्हें लगता है कि वह….वह तुम्हें रुलाना चाहता है?” थके हारे अंदाज़ में कहते उसने उसे छोड़ दिया।

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राहेमीन ने अपनी आंखों से बहने वाले आंसुओं को दोनों हथेलियों से बेदर्दी से पोंछा।
“मुझे आपके इन डायलॉग्स में कोई दिलचस्पी नहीं है।”

ढाक के वही तीन पात।
असफन्द ने तैश में पास पड़े स्टूल पर पैर से ठोकर मारी।
वह डर के ज़रा पीछे हुई।

“रात बहुत गई है राहेमीन….. जाओ, सो जाओ।” बहुत ज़ब्त से उसने कहा था।

“मैं अपनी बात मनवाए बग़ैर नहीं जाऊंगी सुना आपने?”
आज वह ज़िद पर अड़ी थी।
गुस्से के बावजूद असफन्द नर्म पड़ा।

“बोलो, क्या मनवाना चाहती हो?” हाथ सीने पर बांधे।

राहेमीन ने उसकी पुरशौक आंखों में देखा।
“यह जो सारा मेस(mess) है, उसे क्लीयर करिए।

“कैसा मेस?” वह अनजान बना।

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“वही मेस, जिसकी वजह से मेरी ज़िन्दगी आज दोराहे पर आ खड़ी हुई है।” एक एक लफ्ज़ चबाते हुए उसे जताया।

“ओह!” असफन्द ने समझने वाले अंदाज़ में सर हिलाया।
“बात यह है राहेमीन बीबी……….कि जिसको आप मेस कह रही हैं, वह मेरी पूरी ज़िन्दगी का हासिल है। लिहाज़ा इस बारे में सोचना छोड़ दें तो ही बेहतर है।” वह अब पुरसुकून नज़र आ रहा था।

“आप…” उसकी बेहिसी पर राहेमीन दबी आवाज़ में चीखी।
“आप कभी ख़ुश नहीं रहेंगे असफन्द।
मेरी बद-दुआ है कि आप कभी ख़ुश नहीं रहेंगे।
अल्लाह करे आप मर जाएं।”

कमरे में एकदम ख़ामोशी छा गई थी।
सिर्फ घड़ी की टिक-टिक थी जो इस सन्नाटे में अपने होने का पता दे रही थी। वर्ना तो बालकनी से नज़र आ आती बिजली की चमक भी उन दोनों के वजूद में हरक़त पैदा नहीं कर सकी थी जो एक दूसरे के सामने डट कर खड़े थे।

एक की आंखों में नापसंदीदगी का अंसर नुमाया था तो दूसरे की आंखों में मोहब्बत, दुख और सदमा… क्या न था?

कुछ देर बाद कमरे में असफन्द की सर्द आवाज़ गूंजी थी।

“शौहर को बददुआ नहीं देते मिसेज़ असफन्द मीर।”

to be continued………

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