Hisar e Ana chapter 10 part 2: The Siege of Ego by Elif Rose

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Hisar e Ana chapter 10 part 2

Hisar e Ana chapter 10 part 2

पिछले कुछ दिन राहेमीन अपने पेपर में बिज़ी रही थी।
आज आख़री पेपर देकर फारिग हुई।
घर आते ही वह किचन में घुसी थी।
“क्या पका है चची?” उसे ज़ोरों की भूख़ लगी थी।
“अरे आ गई आप राहेमीन बीबी?…. मैं खाना निकालती हूं, आप खा कर ज़रा बड़ी बेगम से मिल लीजिएगा। उन्होंने कहा था कि आपके आने पर उनके पास भेज दूं।”
“खैरियत?” ग्लास में पानी निकालते हुए वह उलझी। रफाकत बी ने लाइल्मी से कंधे उचकाए।
राहेमीन ने वहां रखी कुर्सी पर बैठ कर पानी पिया फ़िर उठी।
“अभी आप खाना मत निकालिए, मैं पहले उनसे मिल आऊं।” कहते हुए वह उनके कमरे की तरफ बढ़ गई।

Hisar e Ana chapter 10 part 2

सबीहा अपने कमरे में बेड पर टेक लगाए किसी सोच में गुम थीं। राहेमीन सलाम करते हुए अन्दर दाख़िल हुई तो वह चौंकी। जवाब देते हुए उन्होंने बेटी को बगौर देखा।
दिलकश सरापा, गोरी रंगत, रेशमी काले लंबे बाल, यह होशरुबा हुस्न…..
वह तो हर महफ़िल में लोगों की नज़रों के घेरे में रहा करती थी।
फ़िर घर के ही लड़के की नज़रों में क्यूं न आती?
देखा जाए तो इसमें इतनी भी हैरानी की बात नहीं थी, लेकिन फ़िर भी…..
फिर भी वह इस बात पर यकीन नहीं कर पा रहीं थीं,
और ना ही करना चाहती थीं।

“क्या सोच रही हैं अम्मी?”
राहेमीन बेड पर उनके सामने बैठी तो वह सोचों से बाहर आयीं।
“कुछ नहीं………तुम बताओ, आज आख़री पेपर था, कैसा हुआ?”
“ठीक-ठाक।” उसने एक गहरी सांस ली।
“बस ठीक ठाक?”
“जी अम्मी…. आप तो जानती हैं मुझे मेडिकल में कोई दिलचस्पी नहीं, बहुत मुश्किल है यह मेरे लिए।”
“राहेमीन!” उन्होंने टोका।
“मुश्किल हो या आसान, तुम्हें हर हाल में अच्छे नंबरों से पास होना है। तुम जानती हो कि वहाज टॉपर रह चुका है, सर्जन है वह इतना बड़ा। डॉक्टर्स के आइडियल भी डॉक्टर्स ही होते हैं….. तुम्हें हर हाल में उसके मेअयार पर पूरा उतरना है मेरी जान।”
वह नर्मी से हिदायत दे रहीं थीं और हमेशा की फरमाबरदार राहेमीन चुपचाप सुनती गई।
क्या करती वह?
उसकी मां को अपने होनहार भांजे से मोहब्बत ही इतनी थी।

“समझ रही हो ना मेरी बात?” उसे ख़ामोश देख उन्होंने पूछा।
“जी।”
“चलो अच्छा, जाओ खाना खा लो…… और अपना यह दुपट्टा भी ले जाओ।” सरसरी लहज़ा अपनाते हुए उन्होंने सोफे की तरफ इशारा किया।
उस तरफ़ देखते ही राहेमीन सकते में आई थी।
यह वही नीला दुपट्टा था जो असफन्द की आमद वाले दिन गिरा था और असफन्द ने उसे अपने पास रख लिया था।

“य… यह…….”
“असफन्द के कमरे से मिला था यह मुझे।” वह बग़ौर उसे जांचती नज़रों से देख रही थीं। राहेमीन ने थूक निगला।
“अच्छा?” वह उन्हें देखने से गुरेज़ कर रही थी। “म…. मुझे तो पता ही नहीं चला। हो…… हो सकता है रफाकत चची ने गलती से वहां….. रख दिया हो।” उंगलियां आपस में चटकाईं।
“हम्म!” उन्होंने नज़रें उस पर से नहीं हटाई। “आइंदा खयाल रखना।”
“जी?”
“अपनी चीज़ों का… और उससे भी ज़्यादा ‘अपना’…. खयाल रखना।” एक एक लफ्ज़ पर ज़ोर दिए वह बाज़परस किए उसे काफ़ी कुछ समझा गईं।

राहेमीन ने सर हिलाया।
फिर बेड से उठकर मरे मरे कदमों से चलते हुए सोफे पर से वह दुपट्टा उठाया और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी थी कि एक दफा फिर सबीहा की आवाज़ पर उसे रुकना पड़ा।
“सोच रही हूं भाभी को तुम्हारी और वहाज की शादी की डेट दे ही दूं। वह तो पहले ही बज़िद थीं, बस में ही रुकी हुई थी तुम्हारी पढ़ाई की वजह से, लेकिन ख़ैर…. पढ़ाई बाद में भी हो जाएगी।” गोया कोई बम फोड़ा था सबीहा ने उस पर।

हैरत से रुख़ मोढ़ कर उसने मां को देखा जो पहले ही सब प्लान किए बैठी थीं।
उसके लब बहुत कुछ कहने के लिए खुले लेकिन ज़ुबान ने साथ न दिया। हलक में कुछ अटका था।
उसे लगा अगर एक लफ्ज़ भी मुंह से निकालेगी तो फूट फूट कर रो देगी। लिहाज़ा तेज़ी से कमरे से निकल गई।
अलबत्ता पीछे सबीहा मीर उसके चेहरे के उतार चढ़ाव और आंखों में उतरे बेबसी के रंग देख अजीब इज़्तेराब में मुब्तिला हो गई थीं।

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